गुरुवार, 19 मई 2016

देवमणि पांडेय की ग़ज़ल : दीन-धरम बस यही है अपना



देवमणि पांडेय की ग़ज़ल


दीन-धरम बस यही है अपना साथ इसी के जीना है 
प्यार छुपा है जिस दिल में वो काशी और मदीना है 

मोल-भाव की इस नगरी में सबके अपने-अपने दाम 
मगर है क़ीमत जिसकी ज़्यादा समझो वही नगीना है 

गुज़रा है यह साल भी जैसे कोई तपता रेगिस्तान 
साथ सफ़र में रहने वाला अपना ख़ून-पसीना है 

नफ़रत का इक चढ़ता दरिया प्यार का साहिल कोसों दूर 
वक़्त के हाथों में पतवारें, डाँवाडोल सफ़ीना है 

गंगा, यमुना और गोमती सबके चेहरे स्याह हुए 
ज़हर घुला है दरियाओं में फिर भी हमको पीना है 




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सोमवार, 16 मई 2016

देवमणि पांडेय की ग़ज़ल : काग़ज़ों में है सलामत

DEVMANI PANDEY



देवमणि पांडेय की ग़ज़ल

काग़ज़ों में है सलामत अब भी नक़्शा गाँव का
पर नज़र आता नहीं  पीपल पुराना गाँव का

बूढ़ीं आँखें मुंतज़िर हैं पर वो आख़िर क्या करें
नौजवां तो भूल ही बैठे हैं रस्ता गाँव का

पहले कितने ही परिंदे आते थे परदेस से
अब नहीं भाता किसी को आशियाना गाँव का

छोड़ आए थे जो बचपन वो नज़र आया नहीं
हमने यारो छान मारा चप्पा-चप्पा गाँव का

हो गईं वीरान गलियाँ, खो गई सब रौनक़ें
तीरगी में खो गया सारा उजाला गाँव का

वक़्त ने क्या दिन दिखाए चंद पैसों के लिए
बन गया मज़दूर इक छोटा-सा बच्चा गाँव का

सुख में, दुख में, धूप में जो सर पे आता था नज़र
गुम हुआ जाने कहाँ वो लाल गमछा गाँव का

हर तरफ़ फैली हुई है बेकसी की तेज़ धूप
सबके सर से उठ गया है जैसे साया गाँव का

जो गए परदेस उसको छोड़कर दालान में
राह उनकी देखता है वो बिछौना गाँव का

शाम को चौपाल में क्या गूँजते थे क़हक़हे
सिर्फ़ यादों में बचा है अब वो क़िस्सा गाँव का

ख़ैरियत एक दूसरे की पूछता कोई नहीं
क्या पता अगले बरस क्या हाल होगा गाँव का

सोच में डूबे हुए हैं गाँव के बूढ़े दरख़्त
वाक़ई क्या लुट गया है कुल असासा गाँव का

देवमणि पांडेय : 98210-82126




गुरुवार, 5 मई 2016

देवमणि पांडेय की ग़ज़ल : दिल ने चाहा बहुत



देवमणि पांडेय की ग़ज़ल 

दिल ने चाहा बहुत और मिला कुछ नहीं 
ज़िंदगी हसरतों के सिवा कुछ नहीं

मुझको रुसवा सरेआम उसने किया 
उसके बारे में मैंने कहा कुछ नहीं
  
इश्क़ ने हमको सौग़ात में क्या दिया 
ज़ख़्म ऐसे कि जिनकी दवा कुछ नहीं

पढ़के देखी किताबे-मुहब्बत मगर
आँसुओं के अलावा मिला कुछ नहीं

हर ख़ुशी का मज़ा ग़म की निस्बत से है
ग़म नहीं है अगर तो मज़ा कुछ नहीं

ज़िंदगी ! मुझसे अब तक तू क्यों दूर है
दरमियां अपने जब फ़ासला कुछ नहीं 


DEVMANI PANDEY 



Contact : 98210-82126 

























देवमणि पांडेय की ग़ज़ल : वक़्त के साँचे में ढलकर








देवमणि पांडेय की ग़ज़ल

वक़्त के साँचे में ढलकर हम लचीले हो गए
रफ़्ता-रफ़्ता ज़िंदगी के पेंच ढीले हो गए

इस तरक़्क़ी से भला क्या फ़ायदा हमको हुआ
प्यास तो कुछ बुझ न पाई होंठ गीले हो गए

जी हुज़ूरी की सभी को इस क़दर आदत पड़ी
जो थे परबत कल तलक वो आज टीले हो गए

क्या हुआ क्यूँ घर किसी का आ गया फुटपाथ पर
शायद  उनकी लाडली के हाथ पीले हो गए

आपके बर्ताव में थी सादगी पहले बहुत
जब ज़रा शोहरत मिली तेवर नुकीले हो गए

हक़ बयानी की हमें क़ीमत अदा करनी पड़ी
हमने जब सच कह दिया वो लाल-पीले हो गए

हो मुख़ालिफ़ वक़्त तो मिट जाता है नामो-निशां

इक महाभारत में गुम कितने क़बीले हो गए 

सम्पर्क : : 98210-8212
 

देवमणि की पांडेय ग़ज़ल : जो मिल गया है


 देवमणि की पांडेय ग़ज़ल

जो मिल गया है उससे भी बेहतर तलाश कर
क़तरे में भी छुपा है समंदर तलाश कर

हाथों की इन लकीरों ने मुझसे यही कहा
अपनी लगन से अपना मुक़द्दर तलाश कर

आँगन में नीम, शाख़ पे चिड़ियों का घोसला
जो तुझसे खो गया है वही घर तलाश कर

तू है अगर मसीहा तो यह एक काम कर
टूटे न जिससे शीशा वो पत्थर तलाश कर

इस तेज़ रौशनी में नज़र आता कुछ नहीं
आँखों को दे सुकून वो मंज़र तलाश कर

क्या ढूँढता फिरता है तू उसको इधर-उधर
वो दिल में है छुपा कहीं अंदर तलाश कर
 

DEVMANI PANDEY

Contact : 98210-82126